Mera vyaktitva
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Path ke Pahchane
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Wednesday, November 12, 2008
कभी सुना था कि
"उम्मीद रोज वफ़ादार खादिमा क़ी तरह,
तसल्लियों के प्याले बदलती रहती है"
पर अब सब्र का प्याला छलकने को है और नयी नयी वजहें गढ़ते मैं परेशान हो चुकी हूँ. इसलिए सोचा एक बार फिर से उन सपनो की खातिर ही सही वापस कदम मोड़ चलूं उन सपनीली रहो पर,अपने लक्षय की और बढ़ चलूं,फिर से वही जुनून हो, वही लगन. पिछले कुछ दिनो की सफलताओं ने हौसला भी दिया,और बीते समय की उपलब्धियों ने इन सब ख्वाहिशों को और भी बढ़ावा दिया. लगा कि अब मंज़िल दूर नहीं ,बशत बढ़ने कि देरी है,बस मन बनाना है और बढ़ चलना है पर एक मुद्दे पर कुछ सलाह करते हुए किसी शख़्स ने पूछ लिया कि क्या मैं जानती हूँ कि आख़िर चाहती क्या हूँ और आज जवाब होते हुए भी में वो जवाब ज़ुबान तक ना ला सकी. पर जवाब था ज़रूर मेरे पास. और जवाब है कि अपने हिस्से का सच मुझे खोज ही लेना है, अब तक पैरों में कुछ ज़िम्मेवारियों की बेड़ियाँ थी,पर अब जंजीरे पिघल रही है,रास्ते बन रहे है. बस एक राह चुनने की देर है और बढ़ निकलना है मुझे अपने और अपनी मान के सपनो को पूरा करने के लिए. बस दुविधा है तो कौन सी राह चुनु,वो जो भौतिक सुखो की और ले जाती है या फिर वो अंजाने तथ्यों की और ज्ञान के प्रकाश में,सुलझाने जाने कितने अखोजे रहस्य और प्रकाशित करूँ विज्ञान जगत को ही, बिना इस लालसा के कि मैं सूर्य बनूँगी या जुगनूं,यूँ भी सब तो सूर्य नहीं हो सकते,कुछ दिन तारों की ही तरह टिमटिमा लूँ ,मतलब तो रोशनी से है.. .......
मुक्ति के आकाश पर आँखें जमाए,
चल सकोगी राह पर अंजान भी
या कि वापस लौटना होगा तुम्हे ,
उसी पारंपरिक गुफा में में अज्ञान क़ी
वर्जनाओं में नियोजित,
अर्गला से बंद गृह में,
एक भी खिड़की झरोखे से रहित,
जहाँ शायद जी सको तुम,सुख सहित.
और फिर तुम भूल भी जाओ, उस खुले आकाश का कोना,
कभी जिस के लिए हिम्मत जुटा कर निकल आई थी ,
किसी सुनसान पथ पर,
अब करेगा कौन घोषित,
चाह अंतर क़ी तुम्हारी,
कौन समझेगा,
नयन के आंसूओं क़ी बात सारी.
और खुद को खोजने क़ी कोशिश में ,कौन देगा साथ,ये भी सोचना है,
अंततः
तुमको कहीं आगे,बहुत आगे,अकेले ही निकलना है
( साभार : मुकुल चौधरी)
Posted by Neelima Arora :: 6:13 AM :: 0 Comments: ---------------------------------------